एक रात के चाँद से जाने कितनी बातें करीं थीं;
बचपन से बुढ़ापे तक के सारे सपने और बंदिशें |
बहाना बना कर अगली रात खोली जो खिड़की,
नया चाँद मुझे गौर से ताकने लगा, हँसता हुआ |
चेहरे से झलकती उलझन देख दया आई शायद,
बोला "कल का ही हूँ मैं चाँद 'विती,' दोस्त तेरा!"
सब किस्से एक सांस में सुना गया वापस मुझे वो |
बोला, "लोग ज़िन्दगी में यूँ ही मिलेंगे आगे भी!"
थोडा भरा-भरा सा लग रहा था पिछले दिन से,
"बदलाव तो आने ही हैं, हिसाब रखना अब से!"
तब से आज तक जाने कितने ही लोग आये-गए,
चाँद से भी मेल-मिलाप नहीं होता | हाँ, 'नूर' है |
एक डायरी में लेखा-जोखा है सारे परिवर्तन का
कल उसे जला कर एक नयी ज़िन्दगी शुरू होगी |