Monday, February 27, 2012

'किस्मत'

उसकी नज़र का पीछा करो, ज़रा देखो...
बोझल सी, ओझल सी होती जाए कहाँ?
कमबख्त ठहरती ही नहीं, रुके तो कहीं!

तुम दिन की बात करते हो? नौसिखिये!
मैंने पल-पल इसे हदें पार करते देखा है!
कितनों ने सोचा, इसे रोक लेंगे, रख लेंगे...
रुकना इसका मिज़ाज़ कभी था ही नहीं ।

यह जाए जब इसे जाने दो, छोड़ दो इसे,
तुम्हारे रोकने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।
ग़ुरूर खुद पर ऐसा कभी रखना नहीं, 
तुम तो कुछ नहीं, कितने ही मारे गए ।

क्या कहा तुमने? तुम्हारा हक़ बनता है?
सब यही तो कहते हैं पहले-पहल यहाँ...
मैंने कई बसंत पतझड़ में बदलते देखे हैं,
खुद ही फैसला कर लेना जब देखोगे ।

हाँ, ठीक कहा, मैं तो बस लेखक भर हूँ,
सपनों और रोमांच की दुनिया मेरी है ।
आये लेकिन जहाँ से हैं, हम जायेंगे वहीँ...
ले जाने का काम इसी का होगा, समझे?

यह 'किस्मत' है, इतराती है, इठलाती है 
और हम...हम बस इशारों पर नाचते हैं ।

Wednesday, February 8, 2012

'Maahi'



गहरे अंधेरों में रौशनी का सुराग
बंजर बियाबानों में गुलज़ार खुशबू
सुनसान रास्तों में कदमों की आहट
रक़ीबों की महफ़िल में अपना कोई


लोगों की भीड़ में घिरे होने पर भी
हाथों में हाथ हो तुम्हारा अगर अब
तूफानों से टकराने की हिम्मत मिले
और डूबतों को मिल जाए किनारा


रूह-ए-'विती' तलाशती फिरती थी
अपना सा ही कोई और आधा-अधूरा
आज काएनात से लड़ते-लड़ते, 'माही'
पा ली है, तुम्हारे आगोश में पनाह!



Gehre andheron mein roshni ka suraag
Banjar biyabaanon mein gulzar khushbu
Sunsaan raaston mein kadmon ki aahat
Raqeebon ki mehfil mein apna koi


Logon ki bheed mein ghire hone par bhi
Haathon mein haath ho tumhaara agar ab
Toofaanon se takraane ki himmat mile
Aur doobton ko mil jaaye kinaara


Rooh-e-'Viti' talaashti phirti thi
Apna sa hi koi aur aadha-adhoora
Aaj kainaat se ladte-ladte, 'Maahi'
Paa li hai, tumhaare aagosh mein panaah!



I love you, Maahi!