Thursday, August 26, 2010

~~~...ऐ ज़माने, ग़म क्या?...~~~

मौसम कि नमी तेरी आँखों में झलक रही है
धुंधली हकीकत कतरों में यहाँ छटक रही है


थामे हुए हूँ चेहरा, 'नूर' जिसे नाम है दिया,
बिखरी लट गिरती-गिरती सी अटक रही है


ना मैं हूँ होश में, ना है उसे खबर औरों की,
मदहोशी है, बेरुखी बस थोड़ी खटक रही है


उसका हो कर ना होना, रोज़मर्रा का रोना,
यह दास्ताँ बिन किताब यूँही भटक रही है


सजा दे दो 'विती' को, ऐ ज़माने, ग़म क्या?
बेपनाह रूह वैसे भी कब से फटक रही है...

Friday, August 20, 2010

~~~...repeat...~~~

rage.  hate.  melting.  love.

repeat.

this cycle is your gift to me.
i will break it, soon.

you'll be hurt, of course.
i will be miserable too.

rage.  hate.  melting.  love.

repeat.

i tried to break the cycle.
i failed, will try again.

you escaped it last time.
this time, you're in.

rage.  hate.  melting.  love.

repeat.

you were hurt, so was i.
we're friends now.

neither of us can escape.
we're both messed up.

rage.  hate.  melting.  love.

repeat.

how long can we go on?
it hurts everyday.

the 'noor' is dying here.
'viti' withers too.

rage.  hate.  melting.  love.

repeat.

rage.  hate.  melting.  love.

repeat.

repeat.

repeat.

Friday, August 13, 2010

~~~...आरज़ू-ऐ-'नूर', तमन्ना-ऐ-दिलबर, वगेरह वगेरह...~~~



यादों से तुम्हारी इक शकसियत सी बना चली हूँ,
एक पन्ने के दो सिरों को जोड कर उन्हें खोलना...
परत दर परत मोड़ कर उसको खिलौना कहना,
कुछ यूँ ही किया मैंने भी तुम्हारे ख्यालों के साथ...

सच जो नहीं था उसी पर विशवास किया हर दम,
आँखों ने सामने दिखायीं तसवीरें, जिन्हें झूठा कहा...
घडी भर कदम थिरके बावरे से रागों की जिद पर,
सूखे से, सुर्ख होठों ने फिर चुप्पी का ऐलान किया...


आरज़ू-ऐ-'नूर', तमन्ना-ऐ-दिलबर, वगेरह वगेरह,
बासी से अब हैं लगते सारे यह पकवान, बेस्वादी...
ख्वाइशों से निजात जो आज इस बेरुखी ने दे दी है,
दो जून की रोटी में आराम से 'विती' करेगी गुज़ारा...