Sunday, November 6, 2011

यादों से भरे हुए, सियाह पन्ने

यादों से भरे हुए, सियाह पन्ने पलटने का वक़्त था,
थोड़ा सोच कर कुछ उठाए और कुछ जला दिए |

फरवरी का दरवाज़ा एक खुला था उस कहानी में,
ज़िद कर के मैंने उसे सुनाने को किया था मजबूर |
जाने कहाँ से उठाई थी कहानी उसने एक अनकही,
शायद किसी किसान के बेटे से जिसे वोह पढ़ाती थी |
फसल की कटाई के बारे में थी कहानी, अजीब सी,
सुनाते-सुनाते जिसे वोह सो भी गयी थी, पर मैं नहीं |

कहानियां तो और भी बहुत सी सुनाई गयीं थी मुझे,
कभी इतना ध्यान मैंने दिया नहीं, ख़ास लगीं नहीं |

दूसरी एक कहानी मैंने ही बनायी थी किसी के साथ,
नदिया के पार जाने की जुस्तजू वाली एक कहानी |
श्याम काका का तांगा, नीम के पेड़ के नीचे चबूतरा,
तरबूज़ की फांकों के पैसे देने के लिए लड़ना-झगड़ना |
मेरे लिए पेड़ से आम कोई तोड़ रहा था, गा रहा था |
अब वोह दूसरा ज़माना लगता है, और वोह परायी |

तीसरी कहानी लिखी जा रही है, रास आ रही है |
बातों ही बातों में बनती गयी, चलती गयी इस बार |

मुझे थामे हैं बाहें और मेरी ख्वाहिशें हो रही हैं पूरी,
ज़रुरत भी नहीं रहती कभी-कभी कुछ भी कहने की |
आँखों से दास्तानें कई बनती जाती हैं हर दिन अब,
जो बचता है वोह लब सुन लेते हैं लबों से चुप्पी में |
आवाज़ कानों में शहद घोलती हुई मुझे छेड़ती है,
मैं माज़ी से दूर, नयी कहानी की एक किरदार हूँ |

कहीं टकरा गया अतीत मेरा राहों में अब तो क्या?
नए-पुराने लोग, एक नोवेल का शायद हिस्सा हैं |

Tuesday, November 1, 2011

एक आग़ाज़

*'वितस्ता' कश्मीर में बहने वाली झेलम नदी का एक नाम है |*


कभी कभी मन में आता है की काग़ज़ पर पूरी ज़िन्दगी उतार दूं अपनी
बिना किसी परवाह के, बिना कुछ सोचे समझे, बस निकाल दूँ सब कुछ 
अपने मन से, इस तरह कि कुछ ना बचे और एक नयी शुरुआत हो मेरी...
जैसे एक नया जनम, एक नयी ज़िन्दगी, एक आग़ाज़, 'वितस्ता' का |

जिस नदी के नाम से मुझे मिली है पहचान
उसकी ही तरह बह चलूँ मैं किसी दिन तो,
हदों से दूर, ज़माने के दस्तूरों को तोड़ कर 
वादियों कि परछाई में, ग़मों को छोड़ कर |

कोशिश बहुत रही कि सीमाओं में रह लूं,
डाल कर, अपने बावरेपन को पिंजरों में,
ध्यान लगाऊं रोज़मर्रा कि ज़िन्दगी में बस |
पर रूह मरने लगे जब, तो क्या करे कोई?

चाहत खुली हवा कि जिसे, और उड़ानों की,
लाख़ चाहे भी तो नहीं कर सकता समझौते |
परवानों को शमा की दीवानगी जैसे होगी,
मुझे भी है जूनून बेलगाम आज़ादियों का !

समझा मैं सकी नहीं यह बातें जिन्हें कभी
वोह खुश हैं, अपने किस्सों में सब गुम हैं |
मैं एक कहानी भर हूँ उनके लिए, दूर हूँ,
'बावरी,' अपनी धुन में खोयी, सोयी सी |

अब जब मुझे समझा किसी ने तो जागे हैं,
थोडा सकपकाए भी हैं यह पुराने दोस्त |
मेरा माझी, मेरा 'माही' अब जो है पास,
पा लूंगी अपनी आज़ादियाँ मैं, जल्द ही !