शमा पर है इलज़ाम-ऐ-क़त्ल गर मारा जाए परवाना
कोसते सब मगर पिघली लौ के दर्द से हर कोई बेगाना
उसमें शोखी है, अदा है, घुरूर है, और ज़रा फ़िक्र भी,
उसे भी आता है पसंद यह अजीब, बेतरतीब अफसाना
वीरान दिल को आबाद तो करने से रही नज़र-ऐ-रहम
हाँ, साक़ी बन सको गर, ना जाना पड़े कभी मयखाना
निगाह पड़ जाए एक सरसरी, समझो बंदा तो दीवाना
खुदा, यहाँ शेर और बकरी के बीच कैसा है याराना?
खैरियत होती, तो दास्ताँ ना लिखी जाती मुझसे कोई
उसको दुआओं में ऊपर रखने का बस देना है हरजाना
कल गेसुओं को खुला छोड़ा तो 'नूर' ने कहा, "देखो!"
'विती,' क्या मजाल की मना करें जब है ऐसा बहाना?