शमा पर है इलज़ाम-ऐ-क़त्ल गर मारा जाए परवाना
कोसते सब मगर पिघली लौ के दर्द से हर कोई बेगाना
उसमें शोखी है, अदा है, घुरूर है, और ज़रा फ़िक्र भी,
उसे भी आता है पसंद यह अजीब, बेतरतीब अफसाना
वीरान दिल को आबाद तो करने से रही नज़र-ऐ-रहम
हाँ, साक़ी बन सको गर, ना जाना पड़े कभी मयखाना
निगाह पड़ जाए एक सरसरी, समझो बंदा तो दीवाना
खुदा, यहाँ शेर और बकरी के बीच कैसा है याराना?
खैरियत होती, तो दास्ताँ ना लिखी जाती मुझसे कोई
उसको दुआओं में ऊपर रखने का बस देना है हरजाना
कल गेसुओं को खुला छोड़ा तो 'नूर' ने कहा, "देखो!"
'विती,' क्या मजाल की मना करें जब है ऐसा बहाना?
शमा जब जलाती है काग़ज़ के टुकड़ों को
ReplyDeleteजहां में नूर पिघल जाता है
शमा के उन इरादों को तो बस
परवाना ही समझ पाता है
पर शमा के जलने में अगर इतना नूर है
सोचता हूँ मैं कभी
तो 'शमा' जब खुद बयान कर दे अपने इरादे काग़ज़ पर
तो क्या समां होता है, 'विती', तुम्हारे लफ़्ज़ों में नज़र आता है...
:)
ReplyDeleteBahut khoob likha hai!
ReplyDeleteDeep and beautiful :)
ReplyDelete@AJ: uff! loved it...really loved it. curious as to who you are!
ReplyDeletethanks everyone! :)
Well... I loved yours more... Its one of those which intimidate me to write... Really Mesmerizing...
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