Monday, February 27, 2012

'किस्मत'

उसकी नज़र का पीछा करो, ज़रा देखो...
बोझल सी, ओझल सी होती जाए कहाँ?
कमबख्त ठहरती ही नहीं, रुके तो कहीं!

तुम दिन की बात करते हो? नौसिखिये!
मैंने पल-पल इसे हदें पार करते देखा है!
कितनों ने सोचा, इसे रोक लेंगे, रख लेंगे...
रुकना इसका मिज़ाज़ कभी था ही नहीं ।

यह जाए जब इसे जाने दो, छोड़ दो इसे,
तुम्हारे रोकने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा ।
ग़ुरूर खुद पर ऐसा कभी रखना नहीं, 
तुम तो कुछ नहीं, कितने ही मारे गए ।

क्या कहा तुमने? तुम्हारा हक़ बनता है?
सब यही तो कहते हैं पहले-पहल यहाँ...
मैंने कई बसंत पतझड़ में बदलते देखे हैं,
खुद ही फैसला कर लेना जब देखोगे ।

हाँ, ठीक कहा, मैं तो बस लेखक भर हूँ,
सपनों और रोमांच की दुनिया मेरी है ।
आये लेकिन जहाँ से हैं, हम जायेंगे वहीँ...
ले जाने का काम इसी का होगा, समझे?

यह 'किस्मत' है, इतराती है, इठलाती है 
और हम...हम बस इशारों पर नाचते हैं ।

6 comments:

  1. beautiful...i love the thought process and the way you put it across..loved it :)

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  2. मैं तो बस लेखक भर हूँ,
    सपनों और रोमांच की दुनिया मेरी है ।

    This is AWESOME!

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  3. सही बात है. किस्मत का खेल, महाखेल है!
    अच्छे-अच्छे गुरु भी हारे हैं इससे..
    सुन्दर शब्दों में पिरोया है.. लगी रहो! :)

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  4. great creation! amazingly more than kismat it made me remember someone...haha!

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  5. thank you so much, all of you! :)

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