Thursday, August 26, 2010

~~~...ऐ ज़माने, ग़म क्या?...~~~

मौसम कि नमी तेरी आँखों में झलक रही है
धुंधली हकीकत कतरों में यहाँ छटक रही है


थामे हुए हूँ चेहरा, 'नूर' जिसे नाम है दिया,
बिखरी लट गिरती-गिरती सी अटक रही है


ना मैं हूँ होश में, ना है उसे खबर औरों की,
मदहोशी है, बेरुखी बस थोड़ी खटक रही है


उसका हो कर ना होना, रोज़मर्रा का रोना,
यह दास्ताँ बिन किताब यूँही भटक रही है


सजा दे दो 'विती' को, ऐ ज़माने, ग़म क्या?
बेपनाह रूह वैसे भी कब से फटक रही है...

6 comments:

  1. i could relate to this .. specially the line "rozmarra ka rona ..." beautiful one !!!

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  2. beautiful..talks about the feeling we all have at the moment i guess :D

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  3. Samundar mein bHanWar,, bHanwar mein kaShtii...ye Zindagi bhi jaiSe,, kOi maNzar hai aiSa... Good one :)

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  4. these lines are so touching!
    उसका हो कर ना होना, रोज़मर्रा का रोना,
    यह दास्ताँ बिन किताब यूँही भटक रही है

    love it :)

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  5. So True... Loved these lines
    "उसका हो कर ना होना, रोज़मर्रा का रोना,
    यह दास्ताँ बिन किताब यूँही भटक रही है|"
    & like Ani said.. its what we go thru every now n then. :)

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