Thursday, October 14, 2010

~~~...जो भी...~~~

चीखूँ-चिल्लाऊं मैं कितना भी, तुम तक आवाज़ नहीं जाने वाली
अपने कारनामों पर इतराऊं मैं, तुमसे वाहवाही नहीं पाने वाली


एक अदद ख्वाइश पूरी कभी हो भी जाए गलती से कोई मेरी गर
मेरी उम्मीदें, जानती हूँ, अब फकत कोई गुल नहीं खिलाने वाली


उधर तुम नदारद हो ज़िन्दगी से मेरी, वाजिब है रहना दूर तुम्हारा
ग़ैर हो चली हूँ, खैर मैं तो होने से रही तुम्हारी लटें सुलझाने वाली


गीत हो, चाहे हो कविता, नज़्म हो, या हो ग़ज़ल कोई, जो भी,
लाख जतन कर ले 'विती', बेपरवाह 'नूर' नहीं मुस्कुराने वाली...

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