Wednesday, October 27, 2010

~~~...इत्तेफाकन...~~~

कुछ लिख रही थी मैं
ख़्वाबों की किताब में,
अचानक नज़र उठी तो
देखा कि मुझे थोड़ी दूर 
से दो आँखें टुकुर-टुकुर 
देखे जा रहीं थीं|

मैं सकपकाई तो थी
फिर भी कुछ ना 
ज़ाहिर करते हुए मैंने
बस कॉफ़ी की चुस्की 
ली, इधर-उधर नज़रें 
घुमायीं, और लिखने लगी|

'बेशर्मी की हद है" मैंने
सोचा, "खैर, थोड़ी देर 
में शायद खुद ही महसूस 
हो जायेगा उसे भी|"
उम्र २२-२५ साल रही 
होगी, छबीला था वह|

मुझसे रहा ना गया,
तो कनखियों से एक बार
फिर उसकी ओर रुख किया
नज़रों का| थोड़ा आराम से
देखा उसे, हालाँकि अभी भी
मुझे घूर ही रहा था वह|

ग़ज़ब खुमारी लिए था
उसके चेहरे का मंज़र|
यूँ लग रहा था जैसे 
कम्बल सा ओढा था उसने
अकेलेपन का| अलग सा
इक आकर्षण भी था|

मेरी कविता में 'volta' 
पर पहुँच चुकी थी मैं,
(वह स्थान जहाँ बोलों का
या कहानी का लहज़ा
एकदम से बदल जाता है|)
अंग्रेजी कविता, यूँ ही|

सहसा उठा वह और आगे
बढ़ा|  मेरी तरफ तेज़ 
क़दमों से चला आया|
मैं सोच ही रही थी कि
कैसे बातचीत का सिलसिला
चलेगा...पर यह क्या?!

मेरी मेज़ पर तो वह दो
सेकंड भी ना ठहरा! 
इससे पहले कि मैं समझ 
पाती, मेरे बिलकुल पीछे 
वाली मेज़ पर बैठा लड़का
ख़ुशी से चिल्ला उठा!

दोनों ने एक दुसरे को 
बाहों में भर लिया और
(मेरा चेहरा देखने लायक
रहा होगा), फिर एक छोटा
सा चुम्बन भी लिया| अब 
जा कर मेरी सब समझ आया!

किस्सा यह था कि वह 
दोनों प्रेमी थे और उन्होंने
वहां मिलने का फैसला किया
था| इत्तेफाकन मैं उन दोनों
के बीच बैठी थी! मैं मुस्काई
और अपनी कृति को पूरा किया|

एक फिल्म देखी थी शाहरुख़ की,
जिसमें लाइन थी, "बड़े बड़े शहरों
में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती
रहती हैं|" कुछ वही ख़याल मेरा 
भी था| कॉफी ख़तम होने ही 
वाली थी, की मैं फिर चौंकी...

"नहीं! एक ही दिन में दो बार!"
मुझे लगा की कोई मुझे देख रहा 
है| सरसरी निगाह से पूरी
बिल्डिंग छान मारी, कोई ना
दिखा|  मैंने अपना सामान 
बटोरा, झोला उठाया, चल दी|

दो कदम ही बढ़ाये होंगे अभी
की पीछे से दो बाजुओं ने 
मुझे कस कर थाम लिया|
एक लड़की के नर्म हाथ थे...
"नहीं...वह...नहीं...कैसे?!"
"वितस्ता!," हलके से वह बोली|

मुढ़ कर मैंने कहा, "टईठी"!
हम फिर से गले लग गए और
दोनों के मुंह पर मुस्कराहट 
खिल सी गयी|  "finally!"
"it has been a while..."
अजीब दिन था| बहुत अजीब!

Thursday, October 21, 2010

~~~...अब क्या करूँ...~~~

तुम्हारे बारे में इतना लिख चुकी कि खुद से उब चुकी हूँ
तुम्हे कभी सराहना आया ही नहीं, अब क्या करूँ?

हाँ पता है मुझे कि तुमने नहीं कहा था लिखने को मुझे
इन दास्तानों का, लेकिन बोलो तो, अब क्या करूँ?

हाथ उठती हूँ लिखने को, आदतें कुछ और लिखने ही ना दें
ज़िम्मा लिया है कुछ किताबों का, अब क्या करूँ?

या तो इबादत लिखी जाए इन हाथों से, या शिकायतें
'नूर' मुझे दरकार-ऐ-रोज़गार है, अब क्या करूँ?

मजबूरी भी देखो कि बेपरवाह से परवाह कि उम्मीद लिए
'विती' फिरे मारी-मारी, बावरी, अब क्या करूँ?

Sunday, October 17, 2010

~~~...Entropy...~~~

It has been a while since we have been our old selves, when we talk, and I feel like I have forgotten who you used to be.  You most certainly think that I have changed.  Funny thing is, everybody else has noticed the changes in us but they never notice the change in the way we see each other.  I think about it sometimes.  I don't blame them.  How can they know?  They have not been a part of what we had built all on our own.  A world that was sheltered from all prying eyes and eavesdropping ears.  There was no need of anyone other than us in this world. We never felt lonely.
Lately though all that has changed a little.  You no longer need me.  
There used to be an urgency in the way you would tell me about your day, about how you felt, and about what you thought about the things that I had to say.  There used to be a twinkle in your eyes when they would see me, and an interesting sort of excitement would be apparent on your face.  You wanted me to tell you things.  Things about the world, things about life, and these things made you think.  You thought about them and you told me what you thought of them.  
I miss that time.
Now it is a mess of awkwardness at times.  There is no twinkle, at least none associated to me.  I am a figure, I am a statue, I am an object that is always present and never intriguing.  There is no urgency at all, none.  There is nothing left to tell, nothing left to share.  Oh of course there is stuff that happens everyday, life is a moving force, so a lot of new memories are formed everyday.  It is just that sharing them with me is not the first, or the second, or even the third thing on your mind anymore.  The only problem is that I have not yet come to terms with this.
I miss the old you.  I hate the new me.  There is no middle ground.  We lost what we had and it has been processed in the garbage disposal of time.  The ground beneath our feet, or say our bond, has crumbled.  You were quick in finding a new place and I was slow.
I am trying to move through air and find solid ground.  I do not like the feeling of falling through space.
I will reach somewhere new.  Or I will find you and share your earth again.

Fin.

Thursday, October 14, 2010

~~~...जो भी...~~~

चीखूँ-चिल्लाऊं मैं कितना भी, तुम तक आवाज़ नहीं जाने वाली
अपने कारनामों पर इतराऊं मैं, तुमसे वाहवाही नहीं पाने वाली


एक अदद ख्वाइश पूरी कभी हो भी जाए गलती से कोई मेरी गर
मेरी उम्मीदें, जानती हूँ, अब फकत कोई गुल नहीं खिलाने वाली


उधर तुम नदारद हो ज़िन्दगी से मेरी, वाजिब है रहना दूर तुम्हारा
ग़ैर हो चली हूँ, खैर मैं तो होने से रही तुम्हारी लटें सुलझाने वाली


गीत हो, चाहे हो कविता, नज़्म हो, या हो ग़ज़ल कोई, जो भी,
लाख जतन कर ले 'विती', बेपरवाह 'नूर' नहीं मुस्कुराने वाली...

Sunday, October 10, 2010

Ghost

You'll never see me,

Though I've always been here.

Your eyes pierce my flesh,

Past the person that's real.

Others you love,

You hold, want to feel,

And I'm just a ghost,

Unloving, unreal.

Thursday, October 7, 2010

~~~...आओ...~~~

ज़बरदस्ती तो नहीं है, ना आना चाहो ना आओ,
रुला तो दिया है, अब जाना तुम्हें हो, चले जाओ...


कुछ जुड़ता सा नहीं, सब टूटा लगे है आज यहाँ
गर तलाश पूरे की है, इस गली को भूल जाओ...


आशियाना नया बनेगा जब, न्योता भेजूंगी ज़रूर
छोडो अभी, तब तक के लिए तुम मुझे भूल जाओ...


थक गए कुतर-कुतर के तारें फ़ोन की पंछी, बन्दर
वाह! बात ना करने का यह बहाना बढ़िया, जाओ...


तब बात चलती थी 'नूर' की, अब भी हाल वही है
पर 'विती' की छुप्पी के चर्चे हैं जारी अभी, जाओ...

Saturday, October 2, 2010

The last page of my book of quotes

I really wanted to share this because the depth of this monologue is something that I am still trying to fathom.  The whole deal about the life is the transcript of a conversation that took place a while ago.  The narrator was extremely sleepy.  And profound?

Do ghadi woh jo paas aa baithe


Life is like sex.  You can enjoy it or not.
Life is a book.  Ruskin Bond's book.  Half imagination, half reality.  We want to take up the imagination and not reality.
Life is a tabla.  However you play it, it will sound the same.  Slowly, will sound that way, and the same with fast.  And then it will tear. It will end.  Deemak happens, like we fall sick.
Life is what we make it.  What we want it to be.
Life is my computer's speakers.  It can be your voice.  Music.  Ghazals, rock songs.  When happy, nice songs.  Gham, sad songs.
There is nothing else in this room.


"Chaahe jis bhi naam se pukaaro mujhe,
zindagi hun tumhaari, guzaaro mujhe."